एकदा नारदोऽगच्छदवासवं दृष्टुमुत्सुकः।। पूजितः परया भक्त्या कृतासनपरिग्रहम्।। 6 ..
मुनिं पप्रच्छ बलहा दूर्वामहात्म्यमादरात्।।
.. इन्द्र उवाच ।।
किमार्थं देवदेवस्य गणेशस्य महात्मनः।। विशेषतः प्रिया ब्राह्मण महादूर्वान्कुर मुने।। 7 ..
.. मुनिरुवाच।।
कथयामि यथाज्ञातं दूर्वामहात्म्यमुत्तमम्।। स्थावरे नगरे पूर्वं कौण्डिन्योऽभून्महामुनिः।। 8 ..
उपासको गणेशस्य तपोबलसमन्वितः।। रमणीयतरस्तस्य ग्रामदक्षिणमगतः।। 9..
आश्रमः सुम्हानल्लसीतावृक्षसमन्वितः।। सरांसि फुल्लपद्मानि यत्रासंसुमहंति च।। 10..
भ्रामररूपजुष्ठानि हंसकारण्डकारपि।। चक्रवाकैर्बकैश्चैव कच्छपर्जलकुक्कुटैः।। 11..
स तु ध्यानरतस्तत्र प्रारभत्तप उत्कटम्।। पुरः स्थाप्य महामूर्तिं गणेशस्य चतुर्भुजम्।। 12..
सुप्रसन्नं सुवरदं दूर्वायुक्तां सुपूजिताम्।। जपप परमं मन्त्रं शुद्धं देवताशोकम्।। 13।।
पप्रच्छसंशयविष्ठा पत्नीनाम्नाश्रयस्य तम्।।
.. आश्रयोवाच।।
स्वामिन्गाजाने देवे दूर्वाभारं दिनेदिने।। 14।।
समर्पयसिकस्मात् त्वं तृणैः कोऽपि न तुष्यति।। अस्ति चेत् पुण्यमेतेन तन्मे त्वं कृपया वद।।16।।
.. कौण्डिन्य उवाच।।
शृणु प्रिये प्रवक्ष्यामि दूर्वामहात्म्यमुत्तमम्।। धर्मस्य नगरे पूर्वमासीदुत्सव उत्तमः।। 16।।
सर्वे देवाः सगन्धर्वाहुताश्चापसरोगनाः।। सिद्धचरणनागश्च मुन्यो यक्षराक्षसाः।। 17।।
तिलोत्तममय नृत्यन्त्यः प्रावारान्येपातत् भुवि।। ददर्श तस्यः रो नियमः कुचौ चारु बृहत्तमौ।। 18।।
अवभवत् कामसन्तप्तो विश्रान्तो निर्पत्रपः।। येषालिंगितुं तस्याश्चुंबितुं च तदन्नम्।। 19.
सदसो निर्गतस्तस्माल्लज्ज्याधोमुखोयमः।। गच्छतस्तस्यरेतश्च स्खलितं पतितं भुवि।। 2020।
विस्फोटमाल्यभवत्समात् पुरुषो विकृतिनः।। कुर्वन्दनस्त्रारवं क्रोरं त्रास्यान् भुवनत्रयम्।। 21।।
ददाः पृथिवीं सर्वं जटाभिर्गगनं स्पृशत्।। चम्पे तस्य शब्देन त्रिलोकीमानसं भृषम्।। 22।।
तदैव विष्णुमगमनस्ते तु सर्वेसंयः।। स्तुतिं नानाविधां कृत्वा नानास्तोत्रैर्यथामति।। 30।।
प्रथमयामासुरव्याग्रः सर्वलोकहिताय तम।। स तैः सर्वैः समगमद्गजाननमामयम्।। 24।।
तस्य नाशं ततो ज्ञात्वा तुष्टुवुः सर्व एव तम।।
.. देवमुनयश्चोचु:।
नमोऽविघ्नस्वरूपाय नमस्ते विघ्नहारिणे।। 25 ..
नमस्ते सर्वरूपाय सर्वसाक्षिन्नमोऽस्तुते।। नमो देवाय महते नमस्ते जगदादये।। 26 ..
नमः कृपानिधे तुभ्यं जगत्पालनहेतवे।। नमस्ते पूर्णतमसे सर्वसंहारकारिणे।। 27 ..
नमस्ते भक्तवरद सर्वदात्रे नमोनमः।। नमस्तेऽन्याशरण सर्वकामप्रपूरक।। 28।।
नमस्ते वेदविदुषे नमस्ते वेदकारिणे।। कामनां शरणं यमः को नु नः स्याद् भायपः।। 29 ..
अकाल एव प्रलयः कथं लब्धो जनैर्यम्।। हा गजानन देवेश हा हा विघ्नहरव्याय।। 30।।
सर्वेषां मरणे प्राप्ते कथस्मानुपेक्षसे।। इति तद्वचनं श्रुत्वा करुणाब्धिर्गजाननः।। 31 ..
अविरासीत् पुरस्तेषां शिशुरूपोऽरिभीतिहा।। बिभ्रात कमलनयने शतचन्द्रनिभन्नम्।। 32 ..
कोटिसूर्यप्रभाजालः कोटिकन्दर्पजिद्वपुः।। कुन्दकुद्भलशोभजिद्दशनोधरबिंबजित्।। 33 ..
उन्नसो भुकुटीचारुण्यः कंबुककंठयुक्।। विशालवक्षा जानुस्पृग्भुजद्वय्युतो बली।। 34 ..
गम्भीरनाभिविलासदुदरोऽतिलसत्कतिः।। रंभशोभापरिस्पर्द्धिगुरुरूश्चरुजनानुयुक् ।। 35..
सुचारुजंघगुल्फश्रीविलसत्पादपद्मकः।। नानालंकारशोभाध्यो महार्गवसनावृतः।। 36 ..
एवं देवं निर्क्षयैव नगरस्य पुरोभुवि।। उत्तस्तुर्देवमुनयो जयशब्दपुरःसारम्।। 37 ..
प्रणेमुर्दंडवद् भूमौ शक्रं देवगण यथा।।
.. देवऋषय उचुः।।
को भवन्कुट अयतः किं कार्यं वद नो विभो।। 38.
वयमेवं विजानीमो ब्रह्मैव बालरूपध्रक:। अनलासुरसंत्रासत्त्यक्त्वा कर्माणि संस्थितान्।। 39 ..
आविर्भूतं तु नस्त्रतुं दुष्टसंहारकारकम्।। इति तद्वचनं श्रुत्वा शिशुरूपी गजाननः।। 40।।
बभाषे हास्यवदनः सर्वान्देवमुनीन्प्रति।।
.. बाल उवाच ।।
भवंतो ज्ञानसंपन्ना यदुक्तं सत्यमेव तत्।। 41 ..
अहं तस्य वधैव दुष्टस्य पर्पीदीनः।। निजेच्छया बालरूपी वेगेनागां सुरर्षयः।। 42 ..
उपायं वाचमि वस्तस्य वधे तं कुरुतान्घाः।। सर्वैर्भवद्भिस्तं दृष्ट्वा नोडनियो बलाधम।। 43 ..
दृष्टव्यं कौतुकं तस्य मम चैव महत्तरम्।। एवं श्रुत्वा कृपावाक्यं सर्वे ते हर्षनिर्भराः।। 44।।
उचुः परस्परं सर्वे न जानिमोऽस्य पौरुषम्।। ईश्वरो बालरूपेण कर्तुमस्यवधं नु किम्।। 45..
अवतीर्नो भवेत्तत्रातुं पीडितं भुवनत्रयम्।। इत्थ्मुक्त्वा तु ते सर्वे प्रणेमुः सादरं च तम।। 46 ..
एतस्मिन्नेव काले तुलकालनलस्वरूपध्रक्।। धन्दाशदिशो भक्षण्नरलोकं समायौ।। 47 ..
कोल्हलो महानसिलोकानां क्रन्दतां तदा।। दृष्टिवैव सर्वे मुनयः पलायनपरा यौः।। 48 ..
तं च ते मनुष्यः प्रोचुः शीघ्रं कुरु पलायनम्।। नोचेद्धिनसिष्यते त्वद्य सुहानानलो ध्रुवम्।। 49 ..
टिमिंगिलो यथा मीनानुरगांगरुडो यथा।। इति तद्वचनं श्रुत्वा परमात्मागजाननः।। पचास।।
बालरूपधरोऽतिष्ठत्पर्वतो हिमवानिव।। सुरर्षयो ययुर्दुरत्त्यक्त्वा तत्रैव बालकम्।। 51 ..
इतिश्रीगणेशपुराणे उपासनाखंडे दूर्वामाहात्म्ये त्रिषष्टितमोऽध्यायः।।63।।
.. आश्रय उवाच ।।
देवर्षिषु प्रयतेषु बाले चाचलवस्थिते।। किमासीत्कौटुकं तत्र आयुलानालोद्भवम्।। 1..
तत्सर्वं विस्तारान्मह्यं कथ्याशु महामुने।।
.. नारद उवाच ।।
एवं तयकृतप्रश्नः कौण्डिन्यो मुनिसत्तमः।। 2..
यदब्रवीच्छचिभ्रस्तत्त्वं शृणु मयोदितम्।।
.. कौण्डिन्य उवाच ।।
अचलाचलवदबले स्थिते तस्मिन्गाजाने।। 3 ..
कालानल इवाक्षोभ्य अयौ सोनलासुरः।। तस्मिन्क्षणे चल वापि चाचलाचलसंयुता।। 4..
नभोदध्वंसदृशघनगरजीतनिस्वनैः।। निपेतुर्वृक्षाशाखाभ्यः पक्षिवृंदानि भूतले।। 5..
निर्वारिर्वारीधिर्जातो वृक्षा उन्मूलितास्तदा।। प्रकंपनेन महता न प्रज्ञयात् किंचन।। 6 ..
तस्मिन्नेव क्षणे देवो बालरूपी गजाननः।। दधारानलरूपं तं दैत्यं मायाबलेन हि।। 7 ..
प्रशस्तसर्वेषु पश्यत्सु जलधिं कुंभजो यथा।। ततः सोऽचिंतयद्यदेवो यद्ययं जठरेऽगत:।। 8 ..
दहेत्त्रिभुवनं कुक्षौ दृष्टमाश्चर्यमुत्कटम्।। ततः शक्रो ददौ चन्द्रं तस्य वह्नेः प्रशांतये।। 9..
भालचंद्रेति तं देवास्तुस्तुवुर्मुनयोऽपि च।। तथापि न च शान्तोऽभूदानलः कंठमध्येगः।। 10..
ततो ब्रह्मा ददौ सिद्धिबुद्धि मानसकन्याके।। रंभोरु पद्मनयने केशवैवलसंयुते।। 11..
चन्द्रवक्त्रेऽमृतगिरौ सूलाभि सारिडवली।। मृणालमध्ये प्रवालहस्ते सत्यस्य कारणे।। 12..
उवाचेमे समालिंग्य तव शान्तोऽनलो भवेत्।। तयोरालिंगने शान्तः किन्चिदेव हुताशनः।। 13।।
ददौ सुकोमलं तस्मै कमलं कमलापतिः।। पद्मपाणिरिति प्रोचुस्तं सर्वे सुरमानुषः।। 14।।
अशांतग्नौ तु वरुणः सिषेच शीतलैर्जलैः।। सहस्रफानिनं नागं गिरिशोऽस्मय ददावथ।। 15।।
तेन बद्धोदरो यस्माद् व्यालबद्धोऽदरो भवत्।। तथापि सत्यं नापेदे कंथोऽस्यानलसंयुतः।। 16।।
इष्टशीतिसहस्राणी मनुष्यस्तं प्रपेदिरे।। अमृता इव दूर्वास्ते प्रत्येकं सेकविंशतिम्।। 17।।
आरोप्यनमस्तकेऽस्य ततः शान्तोऽनलो भवत्।। तुतोष परमात्मासौ दूरवांकुरभरार्चितः।। 18।।
एवं ज्ञात्वा तु ते सर्वे पूजुस्तं गजाननम्।। दूर्वांकुरैर्नेकैस्तैर्हर्षसौ गजाननः।। 19.
उवाच च मुनींदेवनमत्पूजा भक्तिनिर्मिता।। महति स्वल्पिका वापि वृथा दूर्वान्कुरैरविना।। 2020।
विना दूर्वांकुरैः पूजाफलं केनापि नाप्यते।। तस्मादुःसि मद्भक्तैरेका वाप्येकविंशति।। 21।।
भक्त्या समर्पित दूर्वा ददात्यत्फलं महत्।। न तत्क्रतुशतैर्दैनिर्व्रतानुष्ठानसंचायः।। 22।।
तपोभिरुग्रैनियमैः कोटिजन्मार्जितैरपि।। प्राप्यते मनुष्यो देवा यदुर्वभिरवाप्यते।। 30।।